द्वितीय चरण की रणनीति पर बहस
1937 के प्रारंभ में प्रांतीय विधान सभाओं हेतु चुनाव कराने की घोषणा कर दी गयी तथा इसी के साथ ही सत्ता में भागेदारी के प्रश्न पर द्वितीय चरण की रणनीति पर बहस प्रारंभ हो गयी।
इस बात पर सभी राष्ट्रवादियों में आम सहमति थी कि 1935 के अधिनियम का पूरी तरह विरोध किया जाये। किंतु मुख्य प्रश्न यह था कि ऐसे समय में जबकि आंदोलन चलाना असंभव है इसका विरोध किस तरह किया जाये।
इस बात पर पूर्ण सहमति थी कि व्यापक आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम को आधार बनाकर कांग्रेस को ये चुनाव लड़ने चाहिए। इससे जनता में उपनिवेशी शासन के विरुद्ध चेतना का और प्रसार होगा। लेकिन चुनाव के पश्चात क्या किया जायेगा यह तय नहीं था। यदि चुनावों में कांग्रेसियों को प्रांतों में बहुमत मिला तो उसे सरकार बनानी चाहिए या नहीं?
इस मुद्दे को लेकर राष्ट्रवादियों के मध्य तीव्र मतभेद थे। इस मुद्दे पर बहस ने, एक बार पुनः वामपंथियों एवं दक्षिणपंथियों के मध्य उग्र रूप धारण कर लिया।
नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, कांग्रेस सोशलिस्ट एव साम्यवादी सत्ता में भागेदारी के खिलाफ थे, तथा 1935 के अधिनियम का विरोध किये जाने के पक्ष में थे। इन्होंने तर्क दिया कि सत्ता में भागेदारी करने का अर्थ 1935 के अधिनियम को स्वीकार करना तथा राष्ट्रवादियों द्वारा स्वयं को दोषी ठहराना होगा।
इसका तात्पर्य बिना अधिकार के उत्तरदायित्व स्वीकार करना होगा। इसके साथ ही इससे जनआन्दोलन का क्रांतिकारी चरित्र समाप्त हो जाएगा तथा कांग्रेस, संसदीय कार्यों में इस प्रकार उलझ जायेगी कि साम्राज्यवादी शासन का एक अंग बनकर रह जायेगी तथा स्वतंत्रता, सामाजिक-आर्थिक न्याय और गरीबी दूर करने का उसका लक्ष्य अधूरा रह जायेगा।
इस संबंध में इन्होंने यह रणनीति सुझाई कि संसद में घुसकर सरकारी कदमों का विरोध किया जाये तथा ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर दी जायें, जिससे 1935 के अधिनियम का अमल संभव न हो सके। (उनकी यह रणनीति पुराने स्वराजियों की ही रणनीति थीं)।
दीर्घकालिक रणनीति के तहत इन्होंने सुझाव दिया कि मजदूरों और किसानों को वर्गीय आधार पर संगठित किया जाये तथा इन संगठनों को कांग्रेस से सम्बद्ध किया जाये। तत्पश्चात कांग्रेस को समाजवादी राह पर लाकर आंदोलन को पुनः प्रारंभ करने का प्रयत्न किया जाये।
सता में भागीदारी क समथकों ने तर्क दिया कि वे भी 1935 के अधिनियम का विरोध करते हैं किन्तु सत्ता में भागेदारी एक अल्पकालिक रणनीति है। यद्यपि इससे स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती किंतु मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में संसदीय संघर्ष की राजनीति अपनाना ही श्रेयकर है, क्योंकि हमारे पास जन-आंदोलन का कोई और विकल्प नहीं है।
अतः समय की आवश्यकता है कि जन-राजनीति को संसदीय राजनीति, उसमें हो रही गतिविधियों तथा प्रांतों की सरकारों से सम्बद्ध किया जाये, जिससे आंदोलन के लिये उपयुक्त राजनीतिक वातावरण निर्मित किया जा सके। यहां चुनाव के सिद्धांत से ज्यादा महत्वपूर्ण बात रणनीति की है।
उन्होंने यह अवश्य स्वीकार किया कि इसके कई खतरे भी हैं तथा सत्ता में किसी भी पद को धारण करने वाला कांग्रेसी किसी गलत रास्ते पर भी जा सकता है। लेकिन हमें इन खतरों और बुराइयों से संघर्ष करना है न कि इनके डर से प्रशासन में भागेदारी का बहिष्कार करना है। हमें प्रशासन को प्रांतों में सरकारों का गठन करने में सफल होती है तो सीमित अधिकारों के बावजूद मंत्री रचनात्मक कार्यों को प्रोत्साहित कर सकते हैं।
गांधीजी की स्थिति
इन्होंने कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में सत्ता में भागेदारी का विरोध किया किंतु 1936 के प्रारंभ होने तक वे कांग्रेस को सरकार बनाने का अवसर देने के पक्ष में राजी हो गये। 1936 के प्रारंभ में लखनऊ अधिवेशन और 1937 के अंत में फैजपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने चुनावों में भाग लेने, प्रशासन में भागेदारी के विरोध को स्थगित करने तथा सत्ता में भागेदारी के मुद्दे पर चुनाव के पश्चात विचार करने का निर्णय लिया।
कांग्रेस का चुनाव घोषणा-पत्र
कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में 1935 के भारत शासन अधिनियम को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। इसके अतिरिक्त उसने नागरिक स्वतंत्रता की बहाली, राजनितिक बंदियों की रिहायी, कृषि के ढांचे में व्यापक परिवर्तन, भू-राजस्व और लगान में उचित कमी, किसानों को कर्ज से राहत तथा मजदूरों को हड़ताल करने, विरोध प्रदर्शन करने तथा संगठन बनाने के अधिकार देने इत्यादि का वचन दिया। गांधीजी ने किसी भी चुनावी सभा को संबोधित नहीं किया।
कांग्रेस का प्रदर्शन
कांग्रेस ने 1161 सीटों में से 716 स्थानों पर चुनाव लड़ा। असम, बंगाल, पंजाब, सिंध और उ.प. सीमांत प्रांत को छोड़कर शेष सभी प्रांतों में उसने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया तथा बंगाल, असम और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। कांग्रेस ने 6 प्रांतों में सरकार का गठन किया। चुनावों में उल्लेखनीय सफलता हासिल करने के कारण कांग्रेस की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुई तथा नेहरू मानने लगे कि ‘संघर्ष-समझौता-संघर्ष की रणनीति ही सही रणनीति है।
प्रांतों में कांग्रेस शासन के 28 माह
जुलाई 1937 में कांग्रेस ने छह प्रांतों- बम्बई, मद्रास, मध्य भारत, उड़ीसा, बिहार एवं संयुक्त प्रांत में मंत्रिमंडल का गठन किया। बाद में असम और पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में भी उसने सरकार बनायी।
गांधीजी की सलाह: गांधीजी ने कांग्रेसियों को सलाह दी कि सरकार में शामिल होने के मुद्दे को वे सहजता से लें, गंभीरता से नहीं। यह कांटों का ताज है। इससे कोई गौरव प्राप्त नहीं होगा। ये पद इसलिये स्वीकार किये गये हैं, जिससे हम यह जान सकें कि हम अपने राष्ट्रवादी लक्ष्य की ओर आपेक्षित गति से आगे बढ़ रहे हैं या नहीं। गांधी ने सलाह दी कि 1935 के अधिनियम का उपयोग हुकूमत की उम्मीदों के अनुसार नहीं किया जाना चाहिए तथा हुकूमत जिस रूप में चाहती है, उस रूप में इसके इस्तेमाल से बचना चाहिए।
कांग्रेस द्वारा विभिन्न प्रांतों में सरकार के गठन से पूरा राष्ट्र पुलकित हो उठा। भारतीय ऐसा महसूस करने तगे मानो वे स्वयं के शासन में जी रहे हैं। सरकारों के गठन से कांग्रेस की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुयी तथा इससे यह बात भी रेखांकित हुई कि यह न केवल जनता की विजय है अपितु यह जनता की भलाई के जनता द्वारा, उसके प्रतिनिधियों को सौंपा हुआ उत्तरदायित्व है।
अब जनता के प्रतिनिधि राज्य की शक्तियों का प्रयोग जनता के हित में करेंगे। लेकिन कांग्रेस के मंत्रियों के अधिकार और वित्तीय संसाधन सीमित थे। वे अपने प्रशासन द्वारा साम्राज्यवादी स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर सकते थे तथा वे किसी क्रांतिकारी युग का सूत्रपात भी नहीं कर सकते थे।