राजपूत राजा साहित्य-प्रेमी और विद्वानों के आश्रयदाता थे। कुछ राजपूत राजा स्वयं विद्वान् और लेखक थे। अपने समय के मुन्ज और राजा भोज प्रसिद्ध विद्वान् थे। राजा मुन्ज एक महान् कवि था और राजा भोज एक लेखक था जिसने नक्षत्र विज्ञान, कृषि, धर्म ललितकला इत्यादि विषयों पर ग्रन्थ लिखे।
इस युग में पालि, प्राकृत, संस्कृत और प्रांतीय भाषाओं में अच्छे ग्रन्थ लिखे गये। जयदेव जो बंगाल के राजा लक्षमण सेन का राजकवि था, ने गीतगोविन्द की रचना की। कवि चंद बरदाई ने अपने आश्रयदाता पृथ्वीराज की प्रशंसा में पृथ्वीराज रासो की रचना की।
कल्हण ने राजतरगिणी की रचना की। कश्मीरी पडित क्षेमेन्द्र ने ग्यारहवीं शताब्दी में अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें वृहत्कथा मञ्जरी, दशावतारचरित और कलाविलास प्रसिद्ध हैं। बारहवीं शताब्दी में संस्कृत् के प्रसिद्ध विद्वान् और कवि श्रीहर्ष ने नैषधचरित की रचना की। श्रीहष कन्नौज के राजा जयचन्द के दरबारी कवि थे।
इस काल में कुछ प्रसिद्ध नाटककार भी हुए। संस्कृत साहित्य के महान् विद्वान भवभूति ने उत्तरामचरित् की रचना की जो संस्कृत साहित्य की अमूल्य कृति है। इसके अतिरिक्त भवभूति ने दो अन्य नाटक, महावीरचरित् और मालतीमाधव लिखे।
भवभूति कन्नौज के राजा यशोवर्मा के सभा-पंडित थे और उनको कालिदास के बाद दूसरा स्थान दिया जा सकता है। प्रसन्नराघव की जयदेव ने रचना की। राजशेखर ने बालरामायण, बालभारत और कर्पूर मञ्जरी नाटकों की रचना की।
कर्पूर मञ्जरी प्राकृत भाषा में लिखी गई उत्कृष्ट रचना है। इस प्रकार राजशेखर ने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में साहित्य का सृजन किया।
इस समय दार्शनिक साहित्य की भी काफी उन्नति हुई। बौद्ध, जैन और हिन्दू तीनों प्रकार के दर्शनशास्त्रों का राजपूत काल में विकास हुआ।
इस काल में अनेक ऐसे विद्वान् हुए जिन्होंने अपने मतों का तर्क के साथ प्रतिपादन किया। शंकराचार्य (788-820 ई.) ने वेदान्त दर्शन पर शंकर भाष्य, उपनिषद् भाष्य और गीता भाष्य नामक ग्रन्थ लिखे।
इस समय के प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक वाचस्पति मिश्र (नवीं शताब्दी) थे। प्रसिद्ध विद्वान् रामानुज (1140 ई.) का नाम भी उल्लेखनीय है जिन्होंने विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया।
राजपूत-काल इस प्रकार कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रगति का काल था।