भारतीय संविधान ने देश की शासन प्रणाली के रूप में संसदीय शासन व्यवस्था को चुना है। इस शासन व्यवस्था में विधायिका एवं कार्यपालिका का सुंदर समन्वय होता है। इसमें कार्यपालिका शक्ति विधानमण्डल के जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित और बहुमत दल के सदस्य समूह के हाथों में निहित होती है।
यह शक्ति उनके पास तभी तक रहती है, जब तक कि उन्हें विधानमण्डल में निर्वाचित सदन में बहुमत प्राप्त है। भारतीय संविधान के अंतर्गत संघीय विधानमंडल को संसद की संज्ञा प्रदान की गई है और यह संसद द्विसदनात्मक सिद्धांत के आधार पर संगठित की गई है।
अनुच्छेद-79 के अनुसार, संघ के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों से मिलकर बनेगी, जिनके नाम क्रमशः राज्य सभा और लोक सभा होंगे।
भारतीय संविधान का स्वरूप किसी विदेशी संविधान का अनुकरण मात्र न होकर अपने में एक अनुपम और नवीन प्रयोग है। संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे कि ब्रिटिश ढंग की संसदीय प्रभुता स्वीकार करने में अनेक संस्थानात्मक कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं।
वे ती भारत के लिए ऐसी व्यावहारिक शासन व्यवस्था चाहते थे जो कि भारतीय वातावरण में पोषित हो सके। इसी कारण भारतीय संसद को ब्रिटिश संसद की भांति सम्प्रभु नहीं बनाया गया।
संसद की सम्प्रभुता का प्रश्न अनेक अवसरों पर वाद-विवाद का कारण बना है। केशवानंद भारती के मामले में भी पालकीवाला ने इसी प्रश्न को उठाते हुए संसद की शक्तियों को मर्यादित बतलाया। उनके अनुसारसंसद के क्षणिक बहुमत द्वारा बुनियादी मानव स्वतंत्रता का हरण नहीं किया जा सकता एवं संसद संविधान के अनिवार्य और स्थायी तत्वों की संशोधित नहीं कर सकती।
संसद की भाषा |
संविधान के अनुच्छेद 120 के अंतर्गत संविधान के भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद में कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परंतु यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोकसभा का अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिंदी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की आज्ञा दे सकेगा। |